बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
सब है क़ुदरत दावर-ए-दव्वार की
हम सफ़-ए-''क़ालू-बला'' में क्या न थे
कुछ नई ख़्वाहिश नहीं दीदार की
ढूँढ कर दिल में निकाला तुझ को यार
तू ने अब मेहनत मिरी बे-कार की
शक्ल-ए-गुल में जल्वा करते हो कभी
गाह सूरत बुलबुल-ए-गुलज़ार की
आप आते हो कभी सुब्हा-ब-कफ़
करते हो ख़्वाहिश कभी ज़ुन्नार की
लन-तरानी आप की मूसा से थी
हर जगह हाजत नहीं इंकार की
ख़ास हैं मक़्तूल-ए-शमशीर-ए-जफ़ा
कुछ तो लज़्ज़त है तिरी तलवार की
दैर-ओ-काबा में कलीसा में फिरे
हर जगह हम ने तलाश-ए-यार की
सब की है तक़दीर तेरे हाथ में
क्या शिकायत मुस्लिम ओ कुफ़्फ़ार की
हम में जौहर थे इबादत ख़ास के
कर दिया इंसाँ ये मिट्टी ख़्वार की
महर-ओ-मह को उम्र भर देखा किए
थी तमन्ना रू-ए-पुर-अनवार की
और ऐ 'बहराम' इक लिक्खो ग़ज़ल
आप को क़िल्लत नहीं अशआर की
ग़ज़ल
बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
बहराम जी