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बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की | शाही शायरी
bahs kyun hai kafir-o-din-dar ki

ग़ज़ल

बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की

बहराम जी

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बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
सब है क़ुदरत दावर-ए-दव्वार की

हम सफ़-ए-''क़ालू-बला'' में क्या न थे
कुछ नई ख़्वाहिश नहीं दीदार की

ढूँढ कर दिल में निकाला तुझ को यार
तू ने अब मेहनत मिरी बे-कार की

शक्ल-ए-गुल में जल्वा करते हो कभी
गाह सूरत बुलबुल-ए-गुलज़ार की

आप आते हो कभी सुब्हा-ब-कफ़
करते हो ख़्वाहिश कभी ज़ुन्नार की

लन-तरानी आप की मूसा से थी
हर जगह हाजत नहीं इंकार की

ख़ास हैं मक़्तूल-ए-शमशीर-ए-जफ़ा
कुछ तो लज़्ज़त है तिरी तलवार की

दैर-ओ-काबा में कलीसा में फिरे
हर जगह हम ने तलाश-ए-यार की

सब की है तक़दीर तेरे हाथ में
क्या शिकायत मुस्लिम ओ कुफ़्फ़ार की

हम में जौहर थे इबादत ख़ास के
कर दिया इंसाँ ये मिट्टी ख़्वार की

महर-ओ-मह को उम्र भर देखा किए
थी तमन्ना रू-ए-पुर-अनवार की

और ऐ 'बहराम' इक लिक्खो ग़ज़ल
आप को क़िल्लत नहीं अशआर की