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बहर-ए-हस्ती से भी जी घबरा गया | शाही शायरी
bahr-e-hasti se bhi ji ghabra gaya

ग़ज़ल

बहर-ए-हस्ती से भी जी घबरा गया

मोहम्मद उस्मान आरिफ़

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बहर-ए-हस्ती से भी जी घबरा गया
बे-कसी बस अब किनारा आ गया

कम हुआ करते हैं ऐसे ख़ुश-नसीब
तुझ पे मर कर जिन को जीना आ गया

मेरा मिट जाना तमाशा था कोई
आप से ये किस तरह देखा गया

दुख बुरे दिल की कहानी कुछ न पूछ
फूल के हँसने पे रोना आ गया

सुब्ह करना शाम-ए-ग़म का अल-अमाँ
शम्अ' को दाँतों पसीना आ गया

ख़ुश रहो तुम चल बसा बीमार-ए-ग़म
उम्र-भर की उलझनें सुलझा गया

राह-ए-उल्फ़त में है मरना ज़िंदगी
दर्द मंज़िल तक मुझे पहुँचा गया

मौसम-ए-गुल भी है आँखों में ख़िज़ाँ
दिल ही क्या बैठा चमन मुरझा गया

वो हुए क्या आँख से 'आरिफ़' निहाँ
सारी दुनिया में अँधेरा छा गया