बहार आई है फिर झूम कर सहाब उठा
कहाँ है मुतरिब-ए-रंगीं-नवा रबाब उठा
जवाज़ मय का मुख़ालिफ़ अगर है ऐ वाइ'ज़
कहाँ लिखा है दिखा ला उठा किताब उठा
फ़ज़ा में खोल दिए हैं घटाओं ने गेसू
नहीं है जाम न हो शीशा-ए-शराब उठा
हर एक फूल में रक़्साँ है काएनात-ए-जमाल
बहार आई कि है इक महशर-ए-शबाब उठा
कहाँ के दैर-ओ-हरम जुस्तजू-ए-जल्वा-गर
यही नक़ाब है आँखों से ये नक़ाब उठा
नसीम-ए-सुब्ह से शाख़ें मिलीं तो मैं समझा
कि हुस्न-ए-आलम तिफ़्ली में नीम-ख़्वाब उठा
लिबास-ए-माह में 'एहसान' देख कौन आया
निगाह-ए-सू-ए-फ़लक ख़ानुमाँ-ख़राब उठा
ग़ज़ल
बहार आई है फिर झूम कर सहाब उठा
एहसान दानिश