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बहार आई है फिर झूम कर सहाब उठा | शाही शायरी
bahaar aai hai phir jhum kar sahab uTha

ग़ज़ल

बहार आई है फिर झूम कर सहाब उठा

एहसान दानिश

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बहार आई है फिर झूम कर सहाब उठा
कहाँ है मुतरिब-ए-रंगीं-नवा रबाब उठा

जवाज़ मय का मुख़ालिफ़ अगर है ऐ वाइ'ज़
कहाँ लिखा है दिखा ला उठा किताब उठा

फ़ज़ा में खोल दिए हैं घटाओं ने गेसू
नहीं है जाम न हो शीशा-ए-शराब उठा

हर एक फूल में रक़्साँ है काएनात-ए-जमाल
बहार आई कि है इक महशर-ए-शबाब उठा

कहाँ के दैर-ओ-हरम जुस्तजू-ए-जल्वा-गर
यही नक़ाब है आँखों से ये नक़ाब उठा

नसीम-ए-सुब्ह से शाख़ें मिलीं तो मैं समझा
कि हुस्न-ए-आलम तिफ़्ली में नीम-ख़्वाब उठा

लिबास-ए-माह में 'एहसान' देख कौन आया
निगाह-ए-सू-ए-फ़लक ख़ानुमाँ-ख़राब उठा