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बहार आधी गुज़र गई हाए हम क़ैदी हैं ज़िंदाँ के | शाही शायरी
bahaar aadhi guzar gai hae hum qaidi hain zindan ke

ग़ज़ल

बहार आधी गुज़र गई हाए हम क़ैदी हैं ज़िंदाँ के

वली उज़लत

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बहार आधी गुज़र गई हाए हम क़ैदी हैं ज़िंदाँ के
गए कुछ और कुछ जाते हैं दिन चाक-ए-गरेबाँ के

हज़ारों ख़ूब-रू गए ख़ाक में गर्दिश से दौराँ के
झलकते रंग में देखो मुक़य्यश रेज़े अफ़्शाँ के

गया तो दर्द-ए-सर पर हसरत-ए-ज़ख्म-ए-दोयम रह गई
वगर्ना हम तिरी शमशीर के मारे हैं एहसाँ के

मिरा लोहू भी बा'द-अज़-मर्ग क़ातिल के तसद्दुक़ है
संजाफ़-ए-सुर्ख़ मत समझे कोई गिर्द इस के दामाँ के

हुआ है दाग़ बे-क़दरी से उन की मुश्त-ख़ूँ मेरा
पड़े कोएले ही कब मेहंदी में दस्त-ओ-पा-ए-ख़ूबाँ के

जुनूँ से ख़ाक हो गए पर भी आशिक़ हात मलते हैं
बगूले सारे में अटकल किया 'उज़लत' बयाबाँ के