EN اردو
बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का | शाही शायरी
bahana DhunDte rahte hain koi rone ka

ग़ज़ल

बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का

जावेद अख़्तर

;

बहाना ढूँडते रहते हैं कोई रोने का
हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का

अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी
हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का

जो फ़स्ल ख़्वाब की तय्यार है तो ये जानो
कि वक़्त आ गया फिर दर्द कोई बोने का

ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है कि मुझे
ख़ुशी है पाने की कोई न रंज खोने का

है पाश पाश मगर फिर भी मुस्कुराता है
वो चेहरा जैसे हो टूटे हुए खिलौने का