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बग़ैर उस के ये हैराँ हैं बग़ल देख अपनी ख़ाली हम | शाही शायरी
baghair uske ye hairan hain baghal dekh apni Khaali hum

ग़ज़ल

बग़ैर उस के ये हैराँ हैं बग़ल देख अपनी ख़ाली हम

जुरअत क़लंदर बख़्श

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बग़ैर उस के ये हैराँ हैं बग़ल देख अपनी ख़ाली हम
कि करवट ले नहीं सकते हैं जूँ तस्वीर-ए-क़ाली हम

कोई आतिश का परकाला जो वक़्त-ए-ख़्वाब याद आवे
तो समझें क्यूँ न अंगारे ये गुल-हा-ए-निहाली हम

इरादा गर किया दुश्नाम देने का अब ऐ प्यारे
तो लब से लब मिला कर बस तिरी खा लेंगे गाली हम

न हो पहलू में अपने जब वो सब्ज़ा रंग ही ज़ालिम
तो फिर किस रंग काटें ये बला से रात काली हम

लड़ी है आँख उस से जो ये चितवन में जताता है
किसी की क्या हमें पर्वा हैं अपने ला-उबाली हम

न हो वो सीम-तन पास अपने जब सैर-ए-शब-ए-मह में
करें तो देख क्या बस एक पीतल की सी थाली हम

जो हो दूर-अज़-ख़याल-ए-'मानी'-ओ-'बहज़ाद' हर सूरत
बग़ैर-अज़-मू-क़लम खींचीं वो तस्वीर-ए-ख़याली हम

करें वस्फ़-ए-जमाल-ए-यार में इक शेर गर मौज़ूँ
तो समझें इंतिख़ाब-ए-जुमला अशआर-ए-जमाली हम

ब-कुंज-ए-बे-कसी पढ़ते हैं जो हम मर्सिया दिल का
तो हैं आप ही जवाबी और आप ही हैं सवाली हम

वो डूबा इत्र में हो मस्त-ए-मय मसरूफ़-ए-सैर-ए-गुल
और उस को इस रविश देखें दरून-ए-बाग़-ए-ख़ाली हम

गुल-ए-उम्मीद तो शायद कि अपना भी शगुफ़्ता हो
तअज्जुब कुछ नहीं गर पाएँ फल पाते सहाली हम

ज़ि-बस हालात-ए-इश्क़ अब हम पे तारी है सदा 'जुरअत'
ब-तर्ज़-ए-आशिक़ाना कहते हैं अशआर-ए-'हाली' हम