बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता
उसी की शक्ल मुझे चाँद में नज़र आए
वो माह-रुख़ जो लब-ए-बाम भी नहीं आता
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
बिठा दिया मुझे दरिया के उस किनारे पर
जिधर हुबाब तही-जाम भी नहीं आता
चुरा के ख़्वाब वो आँखों को रेहन रखता है
और उस के सर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता
ग़ज़ल
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर