बढ़ेंगे और भी यूँ सिलसिले हिजाबों के
कर अपनी बात हवाले न दे किताबों के
मैं शहर-ए-गुल का मुसाफ़िर मरे शरीक-ए-सफ़र
सऊबतों की ये रातें ये दिन अज़ाबों के
तिरी नज़र से इबारत थे तेरे साथ गए
वो फूल मेरे ख़यालों के रंग ख़्वाबों के
तमाम उम्र फिर इक कर्ब की चिता में जले
हम एक पल जो रुके शहर में गुलाबों के
हटाया रंग का पौदा तो ज़ख़्म ज़ख़्म था फूल
चमन चमन थे वही सिलसिले सराबों के
अभी वो हब्स है 'ख़ावर' कि दम उलझता है
अभी खुले रखो दरवाज़े अपने ख़्वाबों के

ग़ज़ल
बढ़ेंगे और भी यूँ सिलसिले हिजाबों के
ख़ावर रिज़वी