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बड़े ख़ुलूस से दामन पसारता है कोई | शाही शायरी
baDe KHulus se daman pasarta hai koi

ग़ज़ल

बड़े ख़ुलूस से दामन पसारता है कोई

शाज़ तमकनत

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बड़े ख़ुलूस से दामन पसारता है कोई
ख़ुदा को जैसे ज़मीं पर उतारता है कोई

न पूछ क्या तिरे मिलने की आस होती है
कहाँ गुज़रती है कैसे गुज़ारता है कोई

बजा है शर्त-ए-वफ़ा शर्त-ए-ज़िंदगी भी तो हो
बचा सके तो बचा ले कि हारता है कोई

वो कौन शख़्स है क्या नाम है ख़ुदा जाने
अँधेरी रात है किस को पुकारता है कोई

तमाम इश्क़ की जागीर हो गई दुनिया
तिरी निगाह पे दुनिया को वारता है कोई

चराग़ रख के सर-ए-शाम दिल के ज़ीने पर
मुझे ख़बर नहीं होती सुधारता है कोई

ये सर का बोझ नहीं दिल का बोझ है ऐ 'शाज़'
कहाँ उतरता है लेकिन उतारता है कोई