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बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं | शाही शायरी
bazi pe dil laga hai koi dil-lagi nahin

ग़ज़ल

बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं
ये भी है कोई बात कभी हाँ कभी नहीं

जिस ने कुछ एहतियात जवानी में की नहीं
अक़्ल-ए-सलीम कहती है वो आदमी नहीं

दिल माँगो तो जवाब है उन का अभी नहीं
गोया अभी नहीं का है मतलब कभी नहीं

वाइज़ को लअन-तअन की फ़ुर्सत है किस तरह
पूरी अभी ख़ुदा की तरफ़ लौ लगी नहीं

आशिक़ पर उन का एक ज़रा सा है इल्तिफ़ात
और वो भी इस तरह कि कभी है कभी नहीं

जैसा कि आप चाहते हैं शख़्स पाक-ओ-साफ़
ऐसा तो शहर भर में कोई मुत्तक़ी नहीं

तन्हा जिए तो ख़ाक जिए लुत्फ़ क्या लिया
ऐ ख़िज़्र ये तो ज़िंदगी में ज़िंदगी नहीं

हम सब हैं राहगीर तसादुम का क्या सबब
दुनिया है शाहराह कुछ ऐसी गली नहीं

दिल में नशात आए तो चेहरा हो ताबनाक
जब तक जनाब चाँद नहीं चाँदनी नहीं

'परवीं' जलाओ शम्-ए-अमल गोर के लिए
सूरज का नूर चाँद के वहाँ चाँदनी नहीं