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बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी | शाही शायरी
bazar-e-dahr mein teri manzil kahan na thi

ग़ज़ल

बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी

हैदर अली आतिश

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बाज़ार-ए-दहर में तिरी मंज़िल कहाँ न थी
यूसुफ़ न जिस में हो कोई ऐसी दुकाँ न थी

ज़र्दी ने मेरे रंग की मुझ को रुला दिया
हँसवाए जो किसी को ये वो ज़ाफ़राँ न थी

ज़ाहिर से ख़ूब-रूयों का बातिन ख़िलाफ़ था
शीरीं-लबों की तरह से उन की ज़बाँ न थी

मंज़िल ही दूर है जो ये पहुँची नहीं हनूज़
दम लेने वाली राह में उम्र-ए-रवाँ न थी

दिखलाई सैर आँखों को बाम-ए-मुराद की
ऐसी कोई कमंद कोई नर्दबाँ न थी

क़ौस-ए-क़ुज़ह से हम ने भी तश्बीह दी उसे
चिल्ला न होने से जो वो अबरू कमाँ न थी

आगाह जज़्ब-ए-इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा से था न हुस्न
यूसुफ़ को चाह में ख़बर-ए-कारवाँ न थी

याद आ गई जो सिल्क-ए-गुहर तेरे गोश की
सुहान-ए-रूह थी मुझे शब कहकशाँ न थी

रह जाना पीछे जिस्म का जाँ से अजब नहीं
किस कारवाँ की गर्द पस-ए-कारवाँ न थी

ना-फ़हमी की दलील है ये सज्दा से आया
इबलीस को हक़ीक़त-ए-आदम अयाँ न थी

आशिक़ के सर के साथ है साैदा-ए-कू-ए-यार
मोमिन न था वो जिस को हवा-ए-जिनाँ न थी

बाँग-ए-जरस से आगे हर इक का क़दम रहा
गर्द अपने कारवाँ के पस-ए-कारवाँ न थी

अफ़्सोस क्या जवानी-ए-रफ़्ता का कीजिए
वो कौन सी बहार थी जिस को ख़िज़ाँ न थी

नालों से एक दिन न किए गर्म गोश-ए-यार
'आतिश' मगर तुम्हारे दहन में ज़बाँ न थी