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बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा के | शाही शायरी
bashinde haqiqat mein hain hum mulk-e-baqa ke

ग़ज़ल

बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा के

मर्दान अली खां राना

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बाशिंदे हक़ीक़त में हैं हम मुल्क-ए-बक़ा के
कुछ रोज़ से मेहमान हैं इस दार-ए-फ़ना के

दिल ख़ूँ हो शब-ए-वस्ल भी हसरत में न क्यूँ-कर
देखें न वो ख़ल्वत में भी जब आँख उठा के

फ़रमाइए हम से थी यही शर्त-ए-मोहब्बत
ख़ूब आप ने रुस्वा किया ग़ैरों में बुला के

कूचे में न आए कोई मैं जान गया हूँ
फ़रमाते हो मुझ से ये रक़ीबों को सुना के

दिल हाथ से खो जाता है किस तौर से ज़ाहिद
तो आप ज़रा देख ले उस कूचे में जा के

ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ है लिबास-ए-तन-ए-उर्यां
आशिक़ तिरे मोहताज नहीं और क़बा के

हम सर के बल आएँगे जो बुलवाओगे साहब
गर हो न यक़ीं देख लो तुम चाहो बुला के

हो साया-ए-दीवार तुम्हारा जो मयस्सर
फिर क्या करें फ़रमाइए साए को हुमा के

दिल खोल के कर लीजिए ऐ हज़रत-ए-दिल सैर
हम फिर के न फिर आएँगे इस बज़्म से जा के

तन ख़ाक में मिल जाएगा इक रोज़ हमारा
जी तन से निकल जाएगा मानिंद हवा के