बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज़ पेड़
धूप में बनते सँवरते सब्ज़ पेड़
किस क़दर तश्हीर-ए-ग़म से दूर था
चुपके चुपके आह भरते सब्ज़ पेड़
दूर तक रोती हुई ख़ामोशियाँ
रात के मंज़र से डरते सब्ज़ पेड़
दश्त में वो राह-रौ का ख़्वाब थे
घर में कैसे पाँव धरते सब्ज़ पेड़
दोस्तों की सल्तनत में दूर तक
दुश्मनों के ढोर चरते सब्ज़ पेड़
कर गए बे-मेहर मौसम के सुपुर्द
रफ़्ता रफ़्ता आज मरते सब्ज़ पेड़
ग़ज़ल
बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज़ पेड़
बलराज कोमल