बारिश के घनघोर हवाले गिनता रहता हूँ
लम्हा लम्हा बादल काले गिनता रहता हूँ
सदियाँ गुज़रीं ख़्वाबों को आँखों में आए
पलकों पर मकड़ी के जाले गिनता रहता हूँ
ऊपर वाला मंज़िल मुझ को दिखलाता है
और मैं अपने पैर के छाले गिनता रहता हूँ
तारीकी की लाशें गिनना कितना मुश्किल है
दिन के आदम-ख़ोर उजाले गिनता रहता हूँ
मेरी छाँव के टुकड़े खाता जाता है सूरज
मैं आँगन में बैठ निवाले गिनता रहता हूँ
पानी कितना ऊपर हो तो डूबूँगा मैं
कितने पत्थर अब तक डाले गिनता रहता हूँ
दुनिया तारे गिनते गिनते सोती है यार
मैं बे-चारा चाँद के हाले गिनता रहता हूँ
ग़ज़ल
बारिश के घनघोर हवाले गिनता रहता हूँ
अली इमरान