बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ
सज कहूँ धज कहूँ छब तख़्ती कहूँ गात कहूँ
रुख़ ओ ज़ुल्फ़ उस के शब-ए-तार में देखे बाहम
हूँ अचंभे में इसे दिन कहूँ या रात कहूँ
की क़यामत तिरे क़ामत ने तो गुलशन ऊपर
पंखुड़ी एक तरफ़ फूल कहूँ पात कहूँ
ताक़-ए-अबरू के नज़ारे के थे ख़्वाहाँ सो मिला
और क्या हाजत अब ऐ क़िबला-ए-हाजात कहूँ
देखने को अभी दिल तड़पा कि तुम आ पहुँचे
कशिश-ए-दिल कि तुम्हारी ये करामात कहूँ
ऐन हिज्राँ में बहार-ए-गुल-ओ-बाराँ आई
गिर्या आशिक़ का कहूँ या उसे बरसात कहूँ
'अज़फ़री' ने हैं तिरे इश्क़ में झेले प्यारे
क्या क्या आफ़ात बलिय्यात कि सदमात कहूँ
ग़ज़ल
बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ
मिर्ज़ा अज़फ़री