बार-हा दिल को मैं समझा के कहा क्या क्या कुछ
न सुना और खोया मुझ से मिरा क्या क्या कुछ
इज़्ज़त-ओ-आबरू ओ हुरमत ओ दीन ओ ईमाँ
रोऊँ किस किस को मैं यारो कि गया क्या क्या कुछ
सब्र ओ आराम कहूँ या कि मैं अब होश-ओ-हवास
हो गया उस की जुदाई में जुदा क्या क्या कुछ
इश्क़ किस ज़ात का अक़रब है कि लगते ही नीश
दिल के साथ आँखों से पानी हो बहा क्या क्या कुछ
सादा-रूई ने तो खोया दिल ओ दीं से देखें
ख़त के आने में है क़िस्मत का लिखा क्या क्या कुछ
दख़्ल क्या राह-ए-मोहब्बत में निको-नामी को
आया इस कूचे में जो उन ने सुना क्या क्या कुछ
वालिह-ओ-शेफ़्ता ओ ज़ार-ओ-हज़ीन ओ मजनूँ
अपने आशिक़ को कल उस ने न कहा क्या क्या कुछ
गिर्या-ए-शीशा कभी था तो कभी ख़ंदा-ए-जाम
साक़ी इस दौर में तेरे न हुआ क्या क्या कुछ
ग़र्रा मत हो जो ज़माने से तिरी बन आई
था वो क्या क्या कि न बिगड़ा न बना क्या क्या कुछ
शादी आने की न कर यार न जाने का ग़म
आया क्या क्या न कुछ इस जा न गया क्या क्या कुछ
सीना क़ानून ओ ग़िना नाला ओ दिल है मिज़राब
निकले है साज़-ए-मोहब्बत से सदा क्या क्या कुछ
दोस्तो हक़ में तरक़्क़ी ओ तनज़्ज़ुल अपने
क्या कहें हम को ज़माने से हुआ क्या क्या कुछ
ज़ोफ़ ओ ना-ताक़ती ओ सुस्ती ओ आज़ा-शिकनी
एक घंटे में जवानी के बढ़ा क्या क्या कुछ
सैर की क़ुदरत-ए-ख़ालिक़ की बुताँ में 'सौदा'
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भला क्या क्या कुछ
ग़ज़ल
बार-हा दिल को मैं समझा के कहा क्या क्या कुछ
मोहम्मद रफ़ी सौदा