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बाहम बुलंद-ओ-पस्त हैं कैफ़-ए-शराब के | शाही शायरी
baham buland-o-past hain kaif-e-sharab ke

ग़ज़ल

बाहम बुलंद-ओ-पस्त हैं कैफ़-ए-शराब के

नसीम देहलवी

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बाहम बुलंद-ओ-पस्त हैं कैफ़-ए-शराब के
आँखों में हैं तुलू-ओ-ग़ुरूब आफ़्ताब के

पीते हैं सुर्ख़-ओ-ज़र्द प्याले शराब के
क्या क्या हैं औज-ओ-पस्त में रंग आफ़्ताब के

बरसों से ढूँढता है मज़ामीं शराब के
गर्दूं उलट रहा है वरक़ आफ़्ताब के

साक़ी उंडेल जाम सुबूही सुबू की ख़ैर
मुश्ताक़ कब से हैं लब-ए-शब आफ़्ताब के

उट्ठे वो दूद-ए-दिल कि फ़लक हो गया सियाह
गुल हो गए चराग़ मह-ओ-आफ़्ताब के

लिक्खूँ जो उन के चेहरा-ए-रौशन का वस्फ़ मैं
पैदा करूँ ज़बान-ओ-दहन आफ़्ताब के

धो दे शराब से मिरे अंगूर ज़ख़्म को
ता-जल्वे बख़्शें ज़ख़्म-ए-कुहन आफ़्ताब के

खो देगा दूद-ए-आह फ़लक की बरहनगी
डालेगी शाम मुँह पे नक़ाब आफ़्ताब के

ख़ाली कहाँ फ़लक सितम-ए-रोज़गार से
रखता है दिल पे दाग़ मह-ओ-आफ़्ताब के

जाने तो दो फ़लक पे मिरे नाला-ए-जुनूँ
पुर्ज़े उड़ाएँगे वरक़-ए-आफ़्ताब के

ऐ चर्ख़-ए-पीर देख लीं अठखेलियाँ तिरी
याद आ गए हमें भी ज़माने शबाब के

पाई है मैं ने ज़ख़्म से तालीम-ए-ख़ामुशी
गोया लब-ए-सुकूत दहन हैं जवाब के

महरूम-ए-आरज़ू हैं सदा-ए-शिकस्त में
रह रह गए हैं भर के फफोले हबाब के

किस ए'तिबार में नफ़स-ए-चंद ऐ 'नसीम'
शब हर के वास्ते ये तमाशे हैं ख़्वाब के