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बाग़-ए-दिल में कोई ग़ुंचा न खिला तेरे बा'द | शाही शायरी
bagh-e-dil mein koi ghuncha na khila tere baad

ग़ज़ल

बाग़-ए-दिल में कोई ग़ुंचा न खिला तेरे बा'द

बदनाम नज़र

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बाग़-ए-दिल में कोई ग़ुंचा न खिला तेरे बा'द
भूल कर आई न इस सम्त सबा तेरे बा'द

तेरी ज़ुल्फ़ों की महक तेरे बदन की ख़ुशबू
ढूँढती फिरती है इक पगली हवा तेरे बा'द

वही मेले वही पनघट वही झूले वही गीत
गाँव में पर कोई तुझ सा न मिला तेरे बा'द

अंधी रातों की स्याही मिरा मक़्दूर हुई
कोई तारा मिरे आँगन न गिरा तेरे बा'द

दे दिया अपने दिल-ओ-जान का इक इक क़तरा
और क्या चाहती है तेरी सदा तेरे बा'द

जिस्म मेरा था मगर रूह का मालिक था और
कैसी अय्यारी का ये राज़ खुला तेरे बा'द

हद-ए-इमकान तलक किरनें वफ़ा की बिखरें
जिस्म मेरा कई ज़ख़्मों से सजा तेरे बा'द

तू ही ग़ालिब नहीं इक जौर-ए-फ़लक का मारा
मेरे घर आया है तूफ़ान-ए-बला तेरे बा'द

किसी ख़ुश-फ़हमी में रहता है तू बदनाम-'नज़र'
कौन रक्खेगा तुझे याद भला तेरे बा'द