बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
दिल-ए-पुर-ख़ूँ का वहाँ हाथ पता लगता है
क्या तड़पना दिल-ए-बिस्मिल का भला लगता है
कि जब उछले है तिरे सीने से जा लगता है
दिल कहाँ सैर तमाशे पे मिरा लगता है
जी के लग जाने से जीना भी बुरा लगता है
जो हवादिस से ज़माने के गिरा फिर न उठा
नख़्ल आँधी का कहीं उखड़ा हुआ लगता है
दिल लगाने का मज़ा है कि गज़क में उस के
सब कबाबों से नमक दिल पे सिवा लगता है
न शब-ए-हिज्र में लगती है ज़बाँ तालू से
और न पहलू मिरा बिस्तर से ज़रा लगता है
हाए मोहताज हुआ मरहम-ए-ज़ंगार का तू
ज़ख़्म-ए-दिल ज़हर मुझे हँसना तिरा लगता है
आब-ए-ख़ंजर जो है ज़हराब वफ़ादारी को
पानी शायद कि सर-ए-मुल्क फ़ना लगता है
क़द-ए-मजनूँ कोई पहले से छड़ी बेद की है
जब ज़रा झुकता है क़द पाँव से जा लगता है
ज़र्द ज़ाहिद है तो क्या खोट अभी है दिल में
'ज़ौक़' उस ज़र को कसौटी पर कसा लगता है
ग़ज़ल
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़