बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ
आँसू रुके तो आँख में महशर बपा हुआ
सूखी ज़मीं पे बिखरी हुई चंद पत्तियाँ
कुछ तो बता निगार-ए-चमन तुझ को क्या हुआ
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
ऐसे गए कि फिर न कभी लौटना हुआ
ऐ जुस्तुजू कहाँ गए वो हौसले तिरे
किस दश्त में ख़राब तिरा क़ाफ़िला हुआ
पहुँचे पस-ए-ख़याल तो देखा कि रेत पर
ख़ेमा था एक फूल की सूरत खिला हुआ
आई शब-ए-सियह तो दिए झिलमिला उठे
था रौशनी में शहर हमारा बुझा हुआ
ग़ज़ल
बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ
वज़ीर आग़ा