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बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ | शाही शायरी
baadal chhaTe to raat ka har zaKHm wa hua

ग़ज़ल

बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ

वज़ीर आग़ा

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बादल छटे तो रात का हर ज़ख़्म वा हुआ
आँसू रुके तो आँख में महशर बपा हुआ

सूखी ज़मीं पे बिखरी हुई चंद पत्तियाँ
कुछ तो बता निगार-ए-चमन तुझ को क्या हुआ

ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
ऐसे गए कि फिर न कभी लौटना हुआ

ऐ जुस्तुजू कहाँ गए वो हौसले तिरे
किस दश्त में ख़राब तिरा क़ाफ़िला हुआ

पहुँचे पस-ए-ख़याल तो देखा कि रेत पर
ख़ेमा था एक फूल की सूरत खिला हुआ

आई शब-ए-सियह तो दिए झिलमिला उठे
था रौशनी में शहर हमारा बुझा हुआ