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ब-ज़ाहिर तुझ से मिलने का कोई इम्काँ नहीं है | शाही शायरी
ba-zahir tujhse milne ka koi imkan nahin hai

ग़ज़ल

ब-ज़ाहिर तुझ से मिलने का कोई इम्काँ नहीं है

बुशरा फर्रुख

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ब-ज़ाहिर तुझ से मिलने का कोई इम्काँ नहीं है
दिलासों से बहलता ये दिल-ए-नादाँ नहीं है

चमन में लाख भी बरसे अगर अब्र-ए-बहाराँ
तो नख़्ल-ए-दिल हरा होने का कुछ इम्काँ नहीं है

हवा-ए-वक़्त ने जिस बस्ती-ए-दिल को उजाड़ा है
उसे आबाद करना काम कुछ आसाँ नहीं है

वो इक दीवार है हाइल हमारे दरमियाँ जो
किसी रौज़न का उस में अब कोई इम्काँ नहीं है

अगरचे खा गई दीमक ग़मों की बाम-ओ-दर को
मगर टूटी अभी तक ये फ़सील-ए-जाँ नहीं है

तुम्हारी रूह 'बुशरा' क़ैद है तन के क़फ़स में
इसे आज़ाद करना मोजज़ा आसाँ नहीं है