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ब-ज़ाहिर रौनक़ों में बज़्म-आराई में जीते हैं | शाही शायरी
ba-zahir raunaqon mein bazm-arai mein jite hain

ग़ज़ल

ब-ज़ाहिर रौनक़ों में बज़्म-आराई में जीते हैं

सबीहा सबा

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ब-ज़ाहिर रौनक़ों में बज़्म-आराई में जीते हैं
हक़ीक़त है कि हम तन्हा हैं तन्हाई में जीते हैं

सजा कर चार-सू रंगीं महल तेरे ख़यालों के
तिरी यादों की रानाई में ज़ेबाई में जीते हैं

ख़ुशा हम इम्तिहान-ए-दश्त-गर्दी के नतीजे में
ब-सद-एजाज़ मश्क़-ए-आबला-पाई में जीते हैं

सितम-गारों ने आईन-ए-वफ़ा मंसूख़ कर डाला
मगर कुछ लोग अभी उम्मीद-ए-हिजराई में जीते हैं