ब-ज़ाहिर रंग ख़ुशबू रौशनी यक-जान होते हैं
मगर ये शहर अंदर से बहुत वीरान होते हैं
कोई माने न माने गुफ़्तुगू करती है ख़ामोशी
पस-ए-दीवार-ए-हसरत भी कई तूफ़ान होते हैं
उलझ जाएँ तो सुलझाने को ये उम्रें भी ना-काफ़ी
तआरुफ़ के अगरचे सिलसिले आसान होते हैं
सराबों की ख़बर रखना घरों को छोड़ने वालो
कई इक बे-दर-ओ-दीवार भी ज़िंदान होते हैं
यहाँ सारी की सारी रौनक़ें रेग-ए-रवाँ से हैं
बगूले ही तो रेगिस्तान की पहचान होते हैं
पलट आने का रस्ता और ही कोई बनाता है
मुसाफ़िर सब के सब अंजाम से अंजान होते हैं
तो फिर आँखों में सपने एक से क्यूँकर नहीं उगते
लकीरों के अगर दोनों तरफ़ इंसान होते हैं
सफ़र तो चलते रहने की लगन से शर्त है 'अज़्मी'
जिन्हें चलना बहुत हो बे-सर-ओ-सामान होते हैं

ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर रंग ख़ुशबू रौशनी यक-जान होते हैं
इस्लाम उज़्मा