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ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल ज़ुल्म भी ढाना नहीं आता | शाही शायरी
ba-qadr-e-hasrat-e-dil zulm bhi Dhana nahin aata

ग़ज़ल

ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल ज़ुल्म भी ढाना नहीं आता

रशीद शाहजहाँपुरी

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ब-क़द्र-ए-हसरत-ए-दिल ज़ुल्म भी ढाना नहीं आता
वो क्या तस्कीन देंगे जिन को तड़पाना नहीं आता

बका-ए-जावेदाँ के राज़ से वाक़िफ़ नहीं ऐ दिल
जिन्हें राह-ए-वफ़ा में ख़ाक हो जाना नहीं आता

बदलते रहिए उनवाँ शरह-ए-रूदाद-ए-मोहब्बत के
किसी सूरत तमामी पर ये अफ़्साना नहीं आता

गिरा दे क़स्र-ए-इस्तिब्दाद जो इक नारा-ए-हू से
नज़र ऐसा कोई भी आज दीवाना नहीं आता