EN اردو
ब-क़द्र-ए-दीद न थे तेरी अंजुमन के चराग़ | शाही शायरी
ba-qadr-e-did na the teri anjuman ke charagh

ग़ज़ल

ब-क़द्र-ए-दीद न थे तेरी अंजुमन के चराग़

अब्दुर रऊफ़ उरूज

;

ब-क़द्र-ए-दीद न थे तेरी अंजुमन के चराग़
मिरी निगाह फ़रोज़ाँ हुई है बन के चराग़

हज़ार बाद-ए-हवादिस हज़ार सरसर-ए-ग़म
जला रहा हूँ मगर अज़्मत-ए-चमन के चराग़

नुक़ूश-ए-शहर-ए-निगाराँ उभारते ही रहे
मिरे जुनूँ के उजाले तिरी लगन के चराग़

सवाद-ए-अस्र में फ़र्दा की ताबनाकी है
बुझा दिए गए अंदेशा-ए-कुहन के चराग़

हुजूम-ए-ग़म में हुआ था ये कौन नग़्मा-सरा
जली है तीरगी-ए-शाम दर्द बन के चराग़

न बाद-ए-दश्त-ओ-बयाबाँ न शाम-ए-रंज-ओ-बला
लहू से अपने जलाते हैं हम-वतन के चराग़

जिलौ में ताबिश-ए-क़ि़ंदील-ए-आगही ले कर
बुझा दिए हैं मोहब्बत ने अहरमन के चराग़

ज़माना शाम-ए-बला से सवाल करता है
किधर गए वो तिरे दौर-ए-पुर-फ़ितन के चराग़

शरार-ए-नुत्क़ हुआ सर्फ़-ए-हर-ख़याल 'उरूज'
जले तो बुझ न सके शोख़ी-ए-सुख़न के चराग़