ब-नाम-ए-कूचा-ए-दिलदार गुल बरसे कि संग आए
हँसा है चाक-ए-पैराहन न क्यूँ चेहरे पे रंग आए
बचाते फिरते आख़िर कब तलक दस्त-ए-अज़ीज़ाँ से
उन्हीं को सौंप कर हम तो कुलाह-ए-नाम-ओ-नंग आए
हँसो मत अहल-ए-दिल अपनी सी जानो बज़्म-ए-ख़ूबाँ में
चले आए इधर हम भी बहुत जब दिल से तंग आए
कहाँ सेहन-ए-चमन में बात कू-ए-सर-फ़रोशाँ की
इधर से सादा-रू निकले उधर से लाला-रंग आए
करो 'मजरूह' तब दार-ओ-रसन के तज़्किरे हम से
जब उस क़ामत के साए में तुम्हें जीने का ढंग आए
ग़ज़ल
ब-नाम-ए-कूचा-ए-दिलदार गुल बरसे कि संग आए
मजरूह सुल्तानपुरी