ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
वो सादा-लौह हमें चाहता अभी तक है
फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़र्क़ आया
जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है
शुरू-ए-इश्क़ में हासिल हुआ जो देर के बअ'द
वो एक सिफ़्र तह-ए-हाशिया अभी तक है
हुलूल कर चुकी ख़ुद में हज़ार नक़्श ओ रंग
ये काएनात जो ख़ाका-नुमा अभी तक है
तवील सिलसिला-ए-मस्लहत है चार तरफ़
यक़ीन कर ले मिरी जाँ ख़ुदा अभी तक है
ग़ज़ल
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
शहराम सर्मदी