ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं
न पाबंद-ए-ज़बाँ हम हैं न मजबूर-ए-सुख़न हम हैं
गुलिस्ताँ में शरीक-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-चमन हम हैं
बस इतनी बात पर क्यूँ क़ाबिल-ए-दार-ओ-रसन हम हैं
जवाब-ए-ज़ुल्म देती जा रही है अपनी मज़लूमी
इधर तलवार रंगीं है उधर रंगीं-कफ़न हम हैं
ख़िज़ाँ से कब की बुनियाद-ए-गुलिस्ताँ गिर चुकी होती
मगर ये ख़ैरियत है ज़ेर-ए-दीवार-ए-चमन हम हैं
नशेमन फूँक कर समझें कि सब कुछ फूँक डाला है
हिजाब-ए-गुल में बैठे बिजलियों पर ख़ंदा-ज़न हम हैं
अगरचे बज़्म में हम भी हैं लेकिन फ़र्क़ कितना है
वक़ार-ए-अंजुमन तुम हो वबाल-ए-अंजुमन हम हैं
ग़ज़ल
ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं
कलीम आजिज़