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ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं | शाही शायरी
ba-in qaid-e-KHamoshi bhi ghazal-KHwan hama-tan hum hain

ग़ज़ल

ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं

कलीम आजिज़

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ब-ईं क़ैद-ए-ख़मोशी भी ग़ज़ल-ख़्वाँ हमा-तन हम हैं
न पाबंद-ए-ज़बाँ हम हैं न मजबूर-ए-सुख़न हम हैं

गुलिस्ताँ में शरीक-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-चमन हम हैं
बस इतनी बात पर क्यूँ क़ाबिल-ए-दार-ओ-रसन हम हैं

जवाब-ए-ज़ुल्म देती जा रही है अपनी मज़लूमी
इधर तलवार रंगीं है उधर रंगीं-कफ़न हम हैं

ख़िज़ाँ से कब की बुनियाद-ए-गुलिस्ताँ गिर चुकी होती
मगर ये ख़ैरियत है ज़ेर-ए-दीवार-ए-चमन हम हैं

नशेमन फूँक कर समझें कि सब कुछ फूँक डाला है
हिजाब-ए-गुल में बैठे बिजलियों पर ख़ंदा-ज़न हम हैं

अगरचे बज़्म में हम भी हैं लेकिन फ़र्क़ कितना है
वक़ार-ए-अंजुमन तुम हो वबाल-ए-अंजुमन हम हैं