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ब-चशम-ए-हक़ीक़त जहाँ देखता हूँ | शाही शायरी
ba-chashm-e-haqiqat jahan dekhta hun

ग़ज़ल

ब-चशम-ए-हक़ीक़त जहाँ देखता हूँ

शाह आसिम

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ब-चशम-ए-हक़ीक़त जहाँ देखता हूँ
मैं जानाँ का जल्वा अयाँ देखता हूँ

ये जो कुछ कि ज़ाहिर है सब नूर-ए-हक़ है
मैं हक़ देखता हूँ जहाँ देखता हूँ

बहर-रंग ओ हर शय ओ हर जा ओ हर सू
तुझी को मैं जल्वा-कुनाँ देखता हूँ

हर इक क़तरा-ए-बहर-ए-कसरत में यारो
मैं दरिया-ए-वहदत रवाँ देखता हूँ

जहाँ देखता हूँ मैं जल्वा है तेरा
तिरे ग़ैर को मैं ज़ियाँ देखता हूँ

ये तासीर है राज़-ए-उल्फ़त का दिल पर
चू शादी-ओ-ग़म एक साँ देखता हूँ

ब-जुज़ ज़ात-ए-मुर्शिद वहाँ कुछ न पाया
मैं शैख़-ओ-बरहमन यहाँ देखता हूँ

खुला मुझ पे है जब से सिर्र-ए-हक़ीक़त
मैं अपने तईं ख़ुद गुमाँ देखता हूँ

हुआ फ़ैज़-ए-ख़ादिम 'सफ़ी' से ये 'आसिम'
कि सब शान-ए-मौला अयाँ देखता हूँ