अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए
मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए
मैं वो चराग़ सर-ए-रहगुज़ार-ए-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाए
हर एक लहज़ा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाए
ग़ज़ल
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
उबैदुल्लाह अलीम