अज़ाब-ए-बे-दिली-ए-जान-ए-मुब्तला न गया
जो सर पे बार था अंदेशा-ए-सज़ा न गया
ख़मोश हम भी नहीं थे हुज़ूर-ए-यार मगर
जो कहना चाहते थे बस वही कहा न गया
पलट के देखने की अब तो आरज़ू भी नहीं
थी आशिक़ी हमें जब ख़ूब, वो ज़माना गया
रहे मुसिर कि उठा दें वो अंजुमन से हमें
हम उठना चाहते भी थे मगर उठा न गया
हमारे नाम से जब ज़िक्र-ए-बेवफ़ाई चला
जुनूँ में बोल पड़े हम से भी रहा न गया
हमारा क़िस्सा-ए-ग़म बीच में वो छोड़ उट्ठे
उन्ही की ज़िद थी मगर उन ही से सुना न गया
ज़माने भर ने कहा 'अर्श' जो, ख़ुशी से सहा
पर एक लफ़्ज़ जो उस ने कहा सहा न गया
ग़ज़ल
अज़ाब-ए-बे-दिली-ए-जान-ए-मुब्तला न गया
अर्श सिद्दीक़ी