अय्याम-ए-शबाब अपने भी क्या ऐश-असर थे
कहते हैं जिन्हें ऐब वो उस वक़्त हुनर थे
दिन-रात वो महबूब मयस्सर थे कि जिन की
ज़ुल्फ़ें अलम-ए-शाम थीं रुख़ रश्क-ए-सहर थे
साक़ी के इधर जाम इधर नाज़-ओ-अदा से
जादू-नज़राँ ख़ुश-निगहाँ पेश-ए-नज़र थे
महफ़िल से जो उठते थे ज़रा हम तो लिपट कर
नाज़ुक-बदनाँ मू-कमराँ दस्त-ओ-कमर थे
हमराह गुल-अंदामों के हो ख़ुर्रम-ओ-ख़ंदाँ
बाग़-ओ-चमन-ओ-गुलशन-ओ-बुसताँ में गुज़र थे
क्या शोर थे क्या ज़ोर थे हर लहज़ा अहा-हा
क्या वलवले क्या क़हक़हे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर थे
दिखला के झमक जाते रहे दम में 'नज़ीर' आह
क्या जाने वो दिन बर्क़ थे या मिस्ल-ए-शरर थे
ग़ज़ल
अय्याम-ए-शबाब अपने भी क्या ऐश-असर थे
नज़ीर अकबराबादी