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अयाँ हो रंग में और मिस्ल-ए-बू गुल में निहाँ भी हो | शाही शायरी
ayan ho rang mein aur misl-e-bu gul mein nihan bhi ho

ग़ज़ल

अयाँ हो रंग में और मिस्ल-ए-बू गुल में निहाँ भी हो

साहिर देहल्वी

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अयाँ हो रंग में और मिस्ल-ए-बू गुल में निहाँ भी हो
जहान-ए-जाँ हुए गुल-पैरहन जान-ए-जहाँ भी हो

मकीं कौनैन में हो फ़िल-हक़ीक़त ला-मकाँ भी हो
अज़ल से ता-अबद क़ाएम अयाँ भी हो निहाँ भी हो

पर-ए-पर्वाज़-ए-अन्क़ा लाएँगे गर ला-मकाँ भी हो
तुम्हें हम ढूँढ लाएँगे कहीं भी हो जहाँ भी हो

कहाँ हैं हज़रत-ए-ईसा कहाँ हैं हज़रत-ए-मूसा
अयाँ ए'जाज़ में हो और तजल्ली में निहाँ भी हो

ग़शी हो और ग़शी में होश भी कुछ कुछ रहे बाक़ी
वो हुस्न-ए-ला-यज़ाली कुछ अयाँ भी कुछ निहाँ भी हो

जलाना मारना ए'जाज़ है उस चश्म-ए-पुर-फ़न का
हयात-ए-जाविदाँ हो और मर्ग-ए-ना-गहाँ भी हो

जो आँखें हों तो हुस्न-ओ-इश्क़ की सूरत नज़र आए
अयाँ हो रंग-ए-गुल में सौत-ए-बुलबुल में निहाँ भी हो

यहाँ दैर-ओ-हरम में हो वहाँ मय-ख़ाने में 'साहिर'
बरहमन हो जनाब-ए-शैख़ हो पीर-ए-मुग़ाँ भी हो