अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ' भी थी परवाना भी
रात के आख़िर होते होते ख़त्म था ये अफ़्साना भी
क़ैद को तोड़ के निकला जब मैं उठ के बगूले साथ हुए
दश्त-ए-अदम तक जंगल जंगल भाग चला वीराना भी
हाथ से किस ने साग़र पटका मौसम की बे-कैफ़ी पर
इतना बरसा टूट के बादल डूब चला मय-ख़ाना भी
एक लगी के दो हैं असर और दोनों हस्ब-ए-मरातिब हैं
लौ जो लगाए शम्अ' खड़ी है रक़्स में है परवाना भी
दोनों जौलाँ-गाह-ए-जुनूँ हैं बस्ती क्या वीराना है
उठ के चला जब कोई बगूला दौड़ पड़ा वीराना भी
ग़ुंचे चुप हैं गुल हैं हवा पर किस से कहिए जी का हाल
ख़ाक-नशीं इक सब्ज़ा है सो अपना भी बेगाना भी
हुस्न ओ इश्क़ की लाग में अक्सर छेड़ उधर से होती है
शम्अ' का शो'ला जब लहराया उड़ के चला परवाना भी
ख़ून ही की शिरकत वो न क्यूँ हो शिरकत चीज़ है झगड़े की
अपनों से वो देख रहा हूँ जो न करे बेगाना भी
दौर-ए-मसर्रत 'आरज़ू' अपना कैसा ज़लज़ला-आगीं था
हाथ से मुँह तक आते आते छूट पड़ा पैमाना भी
ग़ज़ल
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ' भी थी परवाना भी
आरज़ू लखनवी