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और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का | शाही शायरी
aur to koi bas na chalega hijr ke dard ke maron ka

ग़ज़ल

और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का

इब्न-ए-इंशा

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और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का
सुब्ह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का

झूटे सिक्कों में भी उठा देते हैं ये अक्सर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदे करना काम है इन बंजारों का

अपनी ज़बाँ से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का

जिस जिप्सी का ज़िक्र है तुम से दिल को उसी की खोज रही
यूँ तो हमारे शहर में अक्सर मेला लगा निगारों का

एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुँचा गली गली
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का

दर्द का कहना चीख़ ही उठो दिल का कहना वज़्अ' निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़त-दारों का

'इंशा' जी अब अजनबियों में चैन से बाक़ी उम्र कटे
जिन की ख़ातिर बस्ती छोड़ी नाम न लो उन प्यारों का