और क्या मेरे लिए अरसा-ए-महशर होगा
मैं शजर हूँगा तिरे हाथ में पत्थर होगा
यूँ भी गुज़रेंगी तिरे हिज्र में रातें मेरी
चाँद भी जैसे मिरे सीने में ख़ंजर होगा
ज़िंदगी क्या है कई बार ये सोचा मैं ने
ख़्वाब से पहले किसी ख़्वाब का मंज़र होगा
हाथ फैलाए हुए शाम जहाँ आएगी
बंद होता हुआ दरवाज़ा-ए-ख़ावर होगा
मैं किसी पास के सहरा में बिखर जाऊँगा
तू किसी दौर के साहिल का समुंदर होगा
वो मिरा शहर नहीं शहर-ए-ख़मोशाँ की तरह
जिस में हर शख़्स का मरना ही मुक़द्दर होगा
कौन डूबेगा किसे पार उतरना है 'ज़फ़र'
फ़ैसला वक़्त के दरिया में उतर कर होगा
ग़ज़ल
और क्या मेरे लिए अरसा-ए-महशर होगा
अहमद ज़फ़र