और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात
ढलते ढलते आप-अपनी मौत मर जाएगी रात
ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात
अब अगर ठहरी रग-ओ-पै में उतर जाएगी रात
जो भी हैं पर्वर्दा-ए-शब जो भी हैं ज़ुल्मत परस्त
वो तो जाएँगे उसी जानिब जिधर जाएगी रात
अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात
है उफ़ुक़ से एक संग-ए-आफ़्ताब आने की देर
टूट कर मानिंद-ए-आईना बिखर जाएगी रात
हम तो जाने कब से हैं आवारा-ए-ज़ुल्मत मगर
तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात
रात का अंजाम भी मालूम है मुझ को 'सुरूर'
लाख अपनी हद से गुज़रे ता-सहर जाएगी रात
ग़ज़ल
और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात
सुरूर बाराबंकवी