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और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात | शाही शायरी
aur koi dam ki mehman hai guzar jaegi raat

ग़ज़ल

और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात

सुरूर बाराबंकवी

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और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात
ढलते ढलते आप-अपनी मौत मर जाएगी रात

ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात
अब अगर ठहरी रग-ओ-पै में उतर जाएगी रात

जो भी हैं पर्वर्दा-ए-शब जो भी हैं ज़ुल्मत परस्त
वो तो जाएँगे उसी जानिब जिधर जाएगी रात

अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात

है उफ़ुक़ से एक संग-ए-आफ़्ताब आने की देर
टूट कर मानिंद-ए-आईना बिखर जाएगी रात

हम तो जाने कब से हैं आवारा-ए-ज़ुल्मत मगर
तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात

रात का अंजाम भी मालूम है मुझ को 'सुरूर'
लाख अपनी हद से गुज़रे ता-सहर जाएगी रात