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और अब ये कहता हूँ ये जुर्म तो रवा रखता | शाही शायरी
aur ab ye kahta hun ye jurm to rawa rakhta

ग़ज़ल

और अब ये कहता हूँ ये जुर्म तो रवा रखता

मजीद अमजद

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और अब ये कहता हूँ ये जुर्म तो रवा रखता
मैं उम्र अपने लिए भी तो कुछ बचा रखता

ख़याल-सुब्हों किरन-साहिलों की ओट सदा
मैं मोतियों जड़ी बंसी की लय जगा रखता

जब आसमाँ पे ख़ुदाओं के लफ़्ज़ टकराते
मैं अपनी सोच की बे-हर्फ़ लौ जला रखता

हवा के सायों में हिज्र और हिजरतों के वो ख़्वाब
मैं अपने दिल में वो सब मंज़िलें सजा रखता

इन्हीं हदों तक उभरती ये लहर जिस में हूँ मैं
अगर मैं सब ये समुंदर भी वक़्त का रखता

पलट पड़ा हूँ शुआओं के चीथड़े ओढ़े
नशेब-ए-ज़ीना-ए-अय्याम पर असा रखता

ये कौन है जो मिरी ज़िंदगी में आ आ कर
है मुझ में खोए मिरे जी को ढूँडता रखता

ग़मों के सब्ज़ तबस्सुम से कुंज महके हैं
समय के सम के समर हैं मैं और क्या रखता

किसी ख़याल में हूँ या किसी ख़ला में हूँ
कहाँ हूँ कोई जहाँ तो मिरा पता रखता

जो शिकवा अब है यही इब्तिदा में था 'अमजद'
करीम था मिरी कोशिश में इंतिहा रखता