और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
आप ही अपने मुद्दआ' हैं हम
अपने आशिक़ हैं अपने वारफ़्ता
आप ही अपने दिल-रुबा हैं हम
आप ही ख़ाना आप ख़ाना-ख़ुदा
आप ही अपनी मर्हबा हैं हम
इश्क़ जो दिल में दर्द हो के रहा
ख़ुद उसी दर्द की दवा हैं हम
राज़-ए-दिल की तरह ज़माने में
थे छुपे आज बरमला हैं हम
क्यूँ न हो अर्श पर दिमाग़ अपना
किस के कूचे की ख़ाक-ए-पा हैं हम
हर कोई आश्ना समझता है
और याँ किस के आश्ना हैं हम
इब्तिदा की भी इब्तिदा हैं हम
इंतिहा की भी इंतिहा हैं हम
हम तो बंदे 'निज़ाम' उन के हैं
वो बजा कहते हैं ''ख़ुदा हैं हम''
ग़ज़ल
और अब क्या कहें कि क्या हैं हम
निज़ाम रामपुरी