असीरी बे-मज़ा लगती है बिन-सय्याद क्या कीजे
क़फ़स के कुंज में तन्हा अबस फ़रियाद क्या कीजे
मिरी तमकीं गई मिस्ल-ए-जरस बरबाद क्या कीजे
कि मैं तो चुप हूँ पर करता है दिल फ़रियाद क्या कीजे
असर करता नहीं बिन सज्दा-ए-तस्लीम के नाला
हम इस मिस्रा पे ग़ैर-अज़-हल्क़ा-ए-क़द साद क्या कीजे
कनार-ए-बे-सुतूँ में क्यूँ दिया नक़्श अपने दिलबर का
तभी फ़रहाद दुनिया से गया नाशाद क्या कीजे
पटकता सर जो संग-ए-सूरत-ए-शीरीं से बेहतर था
अबस तेशे के सर ख़ूँ दे गया फ़रहाद क्या कीजे
ग़ज़ल
असीरी बे-मज़ा लगती है बिन-सय्याद क्या कीजे
वली उज़लत