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असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं | शाही शायरी
asir-e-KHak bhi hun KHak se riha bhi hun main

ग़ज़ल

असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं

फ़रहत एहसास

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असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं
मैं जी रहा हूँ तो देखो मरा पड़ा भी हूँ मैं

मैं एक लम्हा-ए-हाज़िर बिला-सियाक़-ओ-सबाक़
और अपने लम्हा-ए-हाज़िर का हाफ़िज़ा भी हूँ मैं

मैं एक फ़र्द-ए-सफ़-आरा मुआ'शरे के ख़िलाफ़
और एक फ़र्द में पूरा मुआ'शरा भी हूँ मैं

निकल भी आया हूँ उस कूचा-ए-तग़ाफ़ुल से
और उस के दर पे बहुत सा पड़ा हुआ भी हूँ मैं

मैं अपनी ख़ाक में लत-पथ पड़ा हुआ हूँ अभी
मगर न भूल कि पर्वर्दा-ए-हवा भी हूँ मैं

किसी भी लफ़्ज़ के जैसा नहीं है लफ़्ज़ मिरा
इधर-उधर से बहुत सा कहा-सुना भी हूँ मैं

अगरचे ठीक से बंदा भी मैं नहीं 'एहसास'
मगर कभी कभी इक लम्हा-ए-ख़ुदा भी हूँ मैं