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असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते | शाही शायरी
asir-e-ishq-e-maraz hain to kya dawa karte

ग़ज़ल

असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते

साक़िब लखनवी

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असीर-ए-इश्क़-ए-मरज़ हैं तो क्या दवा करते
जो इंतिहा को पहुँचते तो इब्तिदा करते

अगर ज़माने में अपने कभी वफ़ा करते
दहान-ए-ज़ख़्म तड़पने पे क्यूँ हँसा करते

मरीज़ लज़्ज़त-ए-फ़रियाद कह नहीं सकते
जो नाले काम न आते तो चुप रहा करते

हम उन से मिल के भी फ़ुर्क़त का हाल कह न सके
मज़ा विसाल का खोते अगर गिला करते

मज़ाक़-ए-दर्द से ना-वाक़िफ़ी नहीं अच्छी
कभी कभी तो मिरी दास्ताँ सुना करते

शब-ए-फ़िराक़ गवारा न थी मगर देखी
अब और ख़ातिर-ए-मेहमाँ ज़ियादा क्या करते

दर-ए-क़फ़स न खुला क़द्र-ए-सब्र कर सय्याद
तड़पते हम तो पहाड़ों में रास्ता करते

इसे जला के उसे आग दी बुरा न किया
जिगर जो रखते थे आख़िर वो दिल को क्या करते

ज़बान वालों से सुन सुन के है यक़ीं 'साक़िब'
कि बोलते तो सनम भी ख़ुदा ख़ुदा करते