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अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया | शाही शायरी
ashk-uftada nazar aate hain sare dariya

ग़ज़ल

अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया

वज़ीर अली सबा लखनवी

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अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
सैल-ए-गिर्या ने ये नज़रों से उतारे दरिया

देख लें गर मिरी अश्कों के शरारे दरिया
ख़ुश्क बरसात में हों ख़ौफ़ के मारे दरिया

दोनों चश्मों से मिरी अश्क बहा करते हैं
मौज-ज़न रहता है दरिया के किनारे दरिया

रग़बत इस तर्क को मछली के कबाबों से नहीं
आतिश-ए-शौक़ से शेख़ी न बघारे दरिया

काम अश्कों की रवानी से न निकला आख़िर
जुस्तुजू-ए-दुर-ए-मक़्सूद में हारे दरिया

जिस को इज़्ज़त दे उसे फिर न करे बे-इज़्ज़त
कुलह-ए-सर न हबाबों की उतारे दरिया

साथ ग़ैरों के वहाँ तुम तो नहाने को गए
रोए याँ हम ग़म-ए-फ़ुर्क़त में तुम्हारे दरिया

हासिल-ए-गौहर-ए-मक़्सूद है रोने से मुझे
दीदा-ए-तर के बदौलत है इजारे दरिया

आँख से मुझ को बुलाता नहीं वो क़ुल्ज़ुम-ए-हुस्न
चश्म-ए-गिर्दाब से करता है इशारे दरिया

बार-ए-उल्फ़त को जो ले सर पे तो निकले न कसक
ता-क़यामत कमर-ए-कोह जो धारे दरिया

जब मैं रोता हूँ नज़र आता है पानी पानी
दम-ए-गिर्या मिरी आँखों के हैं तारे दरिया

फ़ुर्क़त-ए-यार में क्या सैर करें दरिया की
ऐ 'सबा' दीदा-ए-गिर्यां हैं हमारे दरिया