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अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके | शाही शायरी
arz-o-sama kahan teri wusat ko pa sake

ग़ज़ल

अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

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अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअ'त को पा सके
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके

वहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तुझे मुँह दिखा सके

मैं वो फ़तादा हूँ कि बग़ैर-अज़-फ़ना मुझे
नक़्श-ए-क़दम की तरह न कोई उठा सके

क़ासिद नहीं ये काम तिरा अपनी राह ले
उस का पयाम दिल के सिवा कौन ला सके

ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार
अपने तईं भुला दे अगर तू भुला सके

या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
दौड़े हज़ार आप से बाहर न जा सके

गो बहस कर के बात बिठाई भी क्या हुसूल
दिल से उठा ग़िलाफ़ अगर तू उठा सके

इतफ़ा-ए-नार-ए-इश्क़ न हो आब-ए-अश्क से
ये आग वो नहीं जिसे पानी बुझा सके

मस्त-ए-शराब-ए-इश्क़ वो बे-ख़ुद है जिस को हश्र
ऐ 'दर्द' चाहे लाए ब-ख़ुद फिर न ला सके