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अक़्ल की कुछ कम नहीं है रहबरी मेरे लिए | शाही शायरी
aql ki kuchh kam nahin hai rahbari mere liye

ग़ज़ल

अक़्ल की कुछ कम नहीं है रहबरी मेरे लिए

शौक़ बहराइची

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अक़्ल की कुछ कम नहीं है रहबरी मेरे लिए
हर तरफ़ लाईट है हर-सू रौशनी मेरे लिए

अब कहाँ है हुस्न में वो दिलकशी मेरे लिए
रह गई हंडियाँ में ख़ाली खुर्चुनी मेरे लिए

आतिश-ए-क़हर-ए-ख़ुदा दम भर में कर देती है गुल
है मिरी तर-दामनी ऐ ''अर-पी'' मेरे लिए

उन के तेवर मेहरबाँ उन की निगाहें मुल्तफ़ित
दे रही है ज़ोर पूरी पार्टी मेरे लिए

सैकड़ों जीने में लाले लाखों रख़्ने ज़ीस्त में
किर्म-ख़ुर्दा ऐ ख़ुदा ये ज़िंदगी मेरे लिए

अहल-ए-महशर ले गए क़हर-ओ-ग़ज़ब सब लूट कर
सिर्फ़ इक रहमत ख़ुदा की रह गई मेरे लिए

दिल में रंग-ओ-रोग़न-ए-दहक़ाँ का रहता है ख़याल
रोज़-मर्रा गाँव से आता है घी मेरे लिए

जब मैं जानूँ ख़िदमत-ए-ख़ल्क़-ए-ख़ुदा करते हैं आप
ढूँड दीजे कोई औरत शैख़-जी मेरे लिए

शुक्र है अल्लाह का हिन्दोस्ताँ में है क़याम
याँ ज़नानों की नहीं है कुछ कमी मेरे लिए

'शौक़' टपका पड़ रहा है रू-ए-जानाँ से शबाब
सामने रक्खी हुई है रस-भरी मेरे लिए