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अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता | शाही शायरी
aqab se war tha aaKHir main aah kya karta

ग़ज़ल

अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता

सय्यद शकील दस्नवी

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अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता
किसी भी आड़ में ले कर पनाह क्या करता

ग़रीब-ए-शहर था आँखों में थी अना ज़िंदा
सज़ा-ए-मौत न देता तो शाह क्या करता

मिरे ख़ुलूस को जो सिक्का-ए-ग़रज़ समझा
मैं ऐसे शख़्स से आख़िर निबाह क्या करता

यूँ उस के अफ़्व का दामन भी दाग़-दार न हो
यही ख़याल था क़स्द-ए-गुनाह क्या करता

ये तार तार शब-ओ-रोज़ रेज़ा रेज़ा हयात
मैं अपने हाल पर आख़िर निगाह क्या करता

जो ज़िंदगी से न पाए नजात की राहें
'शकील' उस को ज़माना तबाह क्या करता