अपनी जेब थी ख़ाली ख़ाली करते क्या
ख़ुश-पोशी की लाज निभा ली करते क्या
करना था कुछ काम जनाब-ए-आली को
हम ठहरे रुत्बों से ख़ाली करते क्या
ख़ुद को समझा सब से बढ़ कर कार-गुज़ार
थी ये अपनी ख़ाम-ख़याली करते क्या
तुम तो साया-दार शजर थे बाँटते छाँव
हम ठहरे इक सूखी डाली करते क्या
ज़र्रा हो कर जान लिया ख़ुद को ख़ुर्शीद
किरनों से था दामन ख़ाली करते क्या
बाहर झूम रहा था मौसम फूलों का
अंदर रूठी थी हरियाली करते क्या
घर के असासों का मालिक था साहूकार
अपने घर की हम रखवाली करते क्या

ग़ज़ल
अपनी जेब थी ख़ाली ख़ाली करते क्या
अंजुम अज़ीमाबादी