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अपनी हस्ती को अंधे कुएँ में गिराना नहीं चाहता | शाही शायरी
apni hasti ko andhe kunen mein girana nahin chahta

ग़ज़ल

अपनी हस्ती को अंधे कुएँ में गिराना नहीं चाहता

शनावर इस्हाक़

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अपनी हस्ती को अंधे कुएँ में गिराना नहीं चाहता
मैं हक़ीक़त-पसंदी को सूली चढ़ाना नहीं चाहता

दर-ब-दर हूँ तो शेर-ओ-सुख़न के लिए या शिकम के लिए
वर्ना मैं घर से बाहर गली तक भी आना नहीं चाहता

मैं ने मिन्नत नहीं मान रक्खी दरख़्तों से गिरता रहूँ
मैं किसी शाख़ पर कोई तिनका सजाना नहीं चाहता

हो गई है तुझे इस क़दर मुझ से नफ़रत तो सोया न कर
मैं तो ख़ुद तेरे जैसों के ख़्वाबों में आना नहीं चाहता

मेरी कोशिश यही है कि ज़िंदों को साया फ़राहम करूँ
मैं किसी क़ब्र पर कोई पौदा लगाना नहीं चाहता

मैं 'शनावर' तिरी क़द्र करता हूँ दिल से मगर जाने क्यूँ
अपनी औलाद को तेरे जैसा बनाना नहीं चाहता