अपने वीराने का नुक़सान नहीं चाहता मैं
या'नी अब दूसरा इंसान नहीं चाहता मैं
कट गई जैसी भी कटनी थी यहाँ धूप के साथ
अब किसी साए का एहसान नहीं चाहता मैं
मर रहा हूँ मैं यहाँ और वो कहता है मुझे
ना-मुकम्मल तिरा ईमान नहीं चाहता मैं
पास आ कर न बढ़ा और परेशानी-ए-दिल
फिर किसी इश्क़ का सामान नहीं चाहता मैं
तू मोहब्बत में यूँही जान गँवा बैठेगा
जा चला जा कि तिरी जान नहीं चाहता मैं
चाहता हूँ कि यहाँ फूल खिले हों हर-सू
या'नी ये जंग का मैदान नहीं चाहता मैं
मैं जो चुप हूँ तो उसे आप ग़नीमत जानें
देखिए शहर में तूफ़ान नहीं चाहता मैं
ग़ज़ल
अपने वीराने का नुक़सान नहीं चाहता मैं
अज़हर अब्बास