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अपने रोज़ ओ शब का आलम कर्बला से कम नहीं | शाही शायरी
apne roz o shab ka aalam karbala se kam nahin

ग़ज़ल

अपने रोज़ ओ शब का आलम कर्बला से कम नहीं

शहज़ाद क़मर

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अपने रोज़ ओ शब का आलम कर्बला से कम नहीं
अर्सा-ए-मातम है लेकिन फ़ुर्सत-ए-मातम नहीं

सिर्फ़ जज़्ब-ए-शौक़ में पौरें लहू करते रहे
हम वहाँ उलझे जहाँ पर कोई पेच ओ ख़म नहीं

कोई रोग ऐसा नहीं जो क़र्या-ए-जाँ में न हो
कोई सोग ऐसा नहीं जिस में कि शामिल हम नहीं

कोई लय ऐसी नहीं जो सर्फ़-ए-हँगामा नहीं
एक भी सुर ज़िंदगी के साज़ का मद्धम नहीं

एक सावन ही नहीं है ख़ूँ रुलाने के लिए
अपनी आँखें ख़ुश्क होने का कोई मौसम नहीं

दस्त-ए-ईसा क्या करे जब जिस्म पर रखते हैं हम
एक ऐसा ज़ख़्म जिस का वक़्त भी मरहम नहीं

ऐसी तन्हाई से तो 'शहज़ाद' मर जाना भला
एक भी दुश्मन नहीं और एक भी हमदम नहीं